तू अपने हुस्न पे यूँ न इतराया कर, बारिशों में कभी

"तू अपने हुस्न पे यूँ न इतराया कर, बारिशों में कभी तो भीग जाया कर, मुझे फर्क नहीं पड़ता अब रक़ीब से, कभी हिज्र की रात उसे भी दिखाया कर, ग़म-ए-दहर का वस्ल जारी है यहा, तू सहराओं में चिराग जलाया कर, मेरा मकां तो कबका जला दिया तुमने, अपनी यादों का चिता भी जलाया कर, मुम्किन हो की "आफताब" फिर निकले, तू अपनी आंखों का पर्दा हटा कर..!! ©aghyaar"

 तू अपने हुस्न पे यूँ न इतराया कर,
बारिशों में कभी तो भीग जाया कर,

मुझे फर्क नहीं पड़ता अब रक़ीब से,
कभी हिज्र की रात उसे भी दिखाया कर,

 ग़म-ए-दहर का वस्ल जारी है यहा,
 तू सहराओं में चिराग जलाया कर,

 मेरा मकां तो कबका जला दिया तुमने,
 अपनी यादों का चिता भी जलाया कर,

 मुम्किन हो की "आफताब" फिर निकले,
 तू अपनी आंखों का पर्दा हटा कर..!!

©aghyaar

तू अपने हुस्न पे यूँ न इतराया कर, बारिशों में कभी तो भीग जाया कर, मुझे फर्क नहीं पड़ता अब रक़ीब से, कभी हिज्र की रात उसे भी दिखाया कर, ग़म-ए-दहर का वस्ल जारी है यहा, तू सहराओं में चिराग जलाया कर, मेरा मकां तो कबका जला दिया तुमने, अपनी यादों का चिता भी जलाया कर, मुम्किन हो की "आफताब" फिर निकले, तू अपनी आंखों का पर्दा हटा कर..!! ©aghyaar

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