बंदिशे लग गईं, मेरी चलती दुकान पे। जैसे दीपक बुझ ग | हिंदी कविता

"बंदिशे लग गईं, मेरी चलती दुकान पे। जैसे दीपक बुझ गई,इशारों की बाण से। कितनी खुद गर्ज थीं उनकी निगाहें। जिनकी पलकों ने रोक लीं बहती हवाएं। हम दवा भी दिए,हम दुआ भी किए। पर एक पल भी टिकी नही उनकी निगाहें। उनकी सांसों से सरपट दौड़ती हैं जैसे हवाएं। वैसे काजल पर न टिकती कोई भी बलाएं। जैसे कागज़ का खत दूर...दूर तलक जाए। वैसे दूर तलक मेरा मन उनके पास खींचा जाए। ©डॉ.अजय कुमार मिश्र"

 बंदिशे लग गईं, मेरी चलती दुकान पे।
जैसे दीपक बुझ गई,इशारों की बाण से।
कितनी खुद गर्ज थीं उनकी निगाहें।
जिनकी पलकों ने रोक लीं बहती हवाएं।
हम दवा भी दिए,हम दुआ भी किए।
पर एक पल भी टिकी नही उनकी निगाहें।
उनकी सांसों से सरपट दौड़ती हैं जैसे हवाएं।
वैसे काजल पर न टिकती कोई भी बलाएं।
जैसे कागज़ का खत दूर...दूर तलक जाए।
वैसे दूर तलक मेरा मन उनके पास खींचा जाए।

©डॉ.अजय कुमार मिश्र

बंदिशे लग गईं, मेरी चलती दुकान पे। जैसे दीपक बुझ गई,इशारों की बाण से। कितनी खुद गर्ज थीं उनकी निगाहें। जिनकी पलकों ने रोक लीं बहती हवाएं। हम दवा भी दिए,हम दुआ भी किए। पर एक पल भी टिकी नही उनकी निगाहें। उनकी सांसों से सरपट दौड़ती हैं जैसे हवाएं। वैसे काजल पर न टिकती कोई भी बलाएं। जैसे कागज़ का खत दूर...दूर तलक जाए। वैसे दूर तलक मेरा मन उनके पास खींचा जाए। ©डॉ.अजय कुमार मिश्र

दूर तलक

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