उगते सूरज को देखता हूँ तो नज़र गढ़ जाती है उसके बाद | हिंदी Poetry

"उगते सूरज को देखता हूँ तो नज़र गढ़ जाती है उसके बाद खुद से उम्मीद और बढ़ जाती है मन करता है आसमान छू लूं पर हालातों की हथकड़ी हाथों में अकड़ जाती है ये कैसी बेल है ख्वाहिशों की जो कभी रुकती नहीं हैं थोड़ा खाद पानी मिलते ही उचाईयों को चढ़ जाती है लोग कहते हैं के इतना दौड़ भाग क्यों करते हो सुकून से रहा करो मुझे सुकून कमाने के लिए इतना सब करने की ज़रूरत पड़ जाती है आराम तो कर लूँ पर इन आँखों को कैसे समझाऊँ एक गलती से बंद हो जाए तो दूसरी पहले वाली से लड़ जाती है किसीके लिए रुकना , इंतज़ार करना अब हो नहीं पाता मुझसे वो रेल हो गया हूँ जो एक प्लेटफार्म पे दो मिनट होते ही आगे बढ़ जाती है...... ©Dr Ziddi Sharma"

 उगते सूरज को देखता हूँ तो नज़र गढ़ जाती है
उसके बाद खुद से उम्मीद और बढ़ जाती है
मन करता है आसमान छू लूं पर
हालातों की हथकड़ी हाथों में अकड़ जाती है
ये कैसी बेल है ख्वाहिशों की जो कभी रुकती नहीं हैं
थोड़ा खाद पानी मिलते ही उचाईयों को चढ़ जाती है
लोग कहते हैं के 
इतना दौड़ भाग क्यों करते हो सुकून से रहा करो
मुझे सुकून कमाने के लिए 
इतना सब करने की ज़रूरत पड़ जाती है
आराम तो कर लूँ
 पर इन आँखों को कैसे समझाऊँ
एक गलती से बंद हो जाए 
तो दूसरी पहले वाली से लड़ जाती है
किसीके लिए रुकना , इंतज़ार करना 
अब हो नहीं पाता मुझसे
वो रेल हो गया हूँ 
जो एक प्लेटफार्म पे दो मिनट होते ही 
आगे बढ़ जाती है......

©Dr Ziddi Sharma

उगते सूरज को देखता हूँ तो नज़र गढ़ जाती है उसके बाद खुद से उम्मीद और बढ़ जाती है मन करता है आसमान छू लूं पर हालातों की हथकड़ी हाथों में अकड़ जाती है ये कैसी बेल है ख्वाहिशों की जो कभी रुकती नहीं हैं थोड़ा खाद पानी मिलते ही उचाईयों को चढ़ जाती है लोग कहते हैं के इतना दौड़ भाग क्यों करते हो सुकून से रहा करो मुझे सुकून कमाने के लिए इतना सब करने की ज़रूरत पड़ जाती है आराम तो कर लूँ पर इन आँखों को कैसे समझाऊँ एक गलती से बंद हो जाए तो दूसरी पहले वाली से लड़ जाती है किसीके लिए रुकना , इंतज़ार करना अब हो नहीं पाता मुझसे वो रेल हो गया हूँ जो एक प्लेटफार्म पे दो मिनट होते ही आगे बढ़ जाती है...... ©Dr Ziddi Sharma

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