वक्त कहाँ तुम्हें? मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग | हिंदी Shayari

"वक्त कहाँ तुम्हें? मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं? वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं? तुम्हारी सुबह की शुरुआत कभी मुझसे हुई नहीं। तुम्हारे दिन का हर वक्त दफ़्तर ने छीन लिया। घड़ी ने जब आज़ाद किया तुम्हें शाम के छोर पर तुमने वो वक्त भी दोस्तों में बाँट दिया। ना सुबह तुम्हारा साथ था, न दिन से कोई उम्मीद थी। तुम्हारी शाम एक क़ैदी थी, अब बाक़ी बस रात थी। चाहत इतनी थी कि रात तरस करे मुझ पर और तुम्हारे वक्त का एक क़तरा मेरे नाम कर दे। वो क़तरा मेरा बस इतना सा काम कर दे सिर्फ़ मैं याद रहूँ तुम्हें, बाक़ी सब को अनजान कर दे। मेहरबान तुम हुए नहीं, तुम भूल गए मुझे मिलकर रात और नींद ने, कर ली फिर साज़िशें तुम बेफ़िक्र होकर सोते रहे, टूटी सी मैं सोचती रही मेरी अहमियत तुम्हारी ज़िंदगी में, आख़िरी से भी आख़िरी नहीं। ना जाने कब रात बीती- कब सुबह हो गई! पर तुम्हारी ये सुबह भी मुझसे शुरू हुई नहीं। मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं? वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं? (गीतिका चलाल) @geetikachalal04 ©Geetika Chalal"

 वक्त कहाँ तुम्हें? 

मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं?
वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं?

तुम्हारी सुबह की शुरुआत कभी मुझसे हुई नहीं।
तुम्हारे दिन का हर वक्त दफ़्तर ने छीन लिया।
घड़ी ने जब आज़ाद किया तुम्हें शाम के छोर पर
तुमने वो वक्त भी दोस्तों में बाँट दिया।

ना सुबह तुम्हारा साथ था, न दिन से कोई उम्मीद थी।
तुम्हारी शाम एक क़ैदी थी, अब बाक़ी बस रात थी।

चाहत इतनी थी कि रात तरस करे मुझ पर
और तुम्हारे वक्त का एक क़तरा मेरे नाम कर दे।
वो क़तरा मेरा बस इतना सा काम कर दे
सिर्फ़ मैं याद रहूँ तुम्हें, बाक़ी सब को अनजान कर दे।

मेहरबान तुम हुए नहीं, तुम भूल गए मुझे
मिलकर रात और नींद ने, कर ली फिर साज़िशें

तुम बेफ़िक्र होकर सोते रहे, टूटी सी मैं सोचती रही
मेरी अहमियत तुम्हारी ज़िंदगी में, आख़िरी से भी आख़िरी नहीं।
ना जाने कब रात बीती- कब सुबह हो गई!
पर तुम्हारी ये सुबह भी मुझसे शुरू हुई नहीं।

मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं?
वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं?
(गीतिका चलाल)
@geetikachalal04

©Geetika Chalal

वक्त कहाँ तुम्हें? मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं? वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं? तुम्हारी सुबह की शुरुआत कभी मुझसे हुई नहीं। तुम्हारे दिन का हर वक्त दफ़्तर ने छीन लिया। घड़ी ने जब आज़ाद किया तुम्हें शाम के छोर पर तुमने वो वक्त भी दोस्तों में बाँट दिया। ना सुबह तुम्हारा साथ था, न दिन से कोई उम्मीद थी। तुम्हारी शाम एक क़ैदी थी, अब बाक़ी बस रात थी। चाहत इतनी थी कि रात तरस करे मुझ पर और तुम्हारे वक्त का एक क़तरा मेरे नाम कर दे। वो क़तरा मेरा बस इतना सा काम कर दे सिर्फ़ मैं याद रहूँ तुम्हें, बाक़ी सब को अनजान कर दे। मेहरबान तुम हुए नहीं, तुम भूल गए मुझे मिलकर रात और नींद ने, कर ली फिर साज़िशें तुम बेफ़िक्र होकर सोते रहे, टूटी सी मैं सोचती रही मेरी अहमियत तुम्हारी ज़िंदगी में, आख़िरी से भी आख़िरी नहीं। ना जाने कब रात बीती- कब सुबह हो गई! पर तुम्हारी ये सुबह भी मुझसे शुरू हुई नहीं। मैं नाम की मोहब्बत। कहीं रोग तो नहीं? वक्त कहाँ तुम्हें? कहीं बोझ तो नहीं? (गीतिका चलाल) @geetikachalal04 ©Geetika Chalal

Love needs a little Time, Care and Attention.
Only commitment of Love does not cherish the Relationship.

वक्त कहाँ तुम्हें?
By- गीतिका चलाल
Geetika Chalal
Insta- @geetikachalal04

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