क्या पता कब अपनी कहानी तमाम हो जाए,
मुख्तसर सी उम्र में ही ज़िन्दगी का अंजाम हो जाए।
एक पल में ग़मो से रिहाई मिल जाए मुझे,
ताउम्र नींद और दर्दों से आराम हो जाए।
जिस हिज़्र ए ग़म का डर है मुझे हरपल,
वो जुदा हुई, न मौत सरेआम हो जाए।
जिस वक्त को इंतज़ार है मुझे जीते जी मारने की,
बस ये कोशिशें पल में नाकाम हो जाए।
वो जब तलक सोहबत में होगी बस उतनी ही साँसें हो,
उसके बाद हमेशा के लिए ज़िंदगी की शाम हो जाए।
©Aarzoo smriti
#Kya pta kb apni kahaani tamaam ho jaye