पूरा दिन मेरा तेरे यादों में ही निकल जाया करता है
अब कहां फुरसत है मुझे इस जमाने को परखने की
तेरे बातों कि बारीकियां समझती ही रह जाती हूं
वक्त ही नहीं मिलता मुझे मेरे बातों को कहने को
हर रोज भटक जाती हूं मैं गजलों के गलियों में
बस खोजती रहती हूं राह उनसे बाहर निकलने की
तुझे ही पढ़ती रहती हूं आज कल गालिब के लफ्जो में
तो क्या जरूरत है अब मुझे कोई गुलज़ार बनाने की
सुबह से शाम हो जाती तेरे यादों से बाहर ना निकलती
अब कहा फुरसत है मुझे इस जमाने को परखने की!!
अब कहां फुरसत है मुझे इस जमाने को परखने की!!
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