वो दर्द भी, क्या दर्द था। लूटनेवाला मुझे, एक मर्द

"वो दर्द भी, क्या दर्द था। लूटनेवाला मुझे, एक मर्द ही था। पर मैंने भी कोशिसे, हजार की जरूर। लेकिन हार गई मैं, जीत गया उसका गुरूर। भड़क चुकी थी उसके, जिस्म में आग। लम्हा लम्हा में मरती गई, लगा मुझपे ये दाग। उसके हौसले बुलंद थे, मेरा सबकुछ लूटने के लिए। तड़प मेरी मजबूरी बनी, उसके चंगुल से छूट ने के लिए। पता नहीं लक्ष्मी और काली को, कौन मर्द डरता हैं। खुले आम नंगा कर नारी को, उसका बलात्कार करता है। अब उसका भी हुआ तृप्त आत्मा, अब तो मुझे छोड़ दे। तबाह तो की हैं ज़िन्दगी, जीने के लिए एक नया मोड़ दे। लेकिन फिर भी उसने सुना नहीं। अब मैंने भी, किया कुछ मना नहीं। पेट्रोल डालकर मुझे, उसने आखिर जला ही डाला। जाते हुए नामर्द ने, किया मेरा ही मुंह काला। क्या आज भी, मेरी तरह कोई नारी शिकार है। ऐसे नामर्द मर्दों पे, दुनियावालो मुझे तो धिक्कार है। कवि: स्वप्निल भोईटे"

 वो दर्द भी,
क्या दर्द था।
लूटनेवाला मुझे,
एक मर्द ही था।

पर मैंने भी कोशिसे,
हजार की जरूर।
लेकिन हार गई मैं,
जीत गया उसका गुरूर।

भड़क चुकी थी उसके,
जिस्म में आग।
लम्हा लम्हा में मरती गई,
लगा मुझपे ये दाग।

उसके हौसले बुलंद थे,
मेरा सबकुछ लूटने के लिए।
तड़प मेरी मजबूरी बनी,
उसके चंगुल से छूट ने के लिए।

पता नहीं लक्ष्मी और काली को,
कौन मर्द डरता हैं।
खुले आम नंगा कर नारी को,
उसका बलात्कार करता है।

अब उसका भी हुआ तृप्त आत्मा,
अब तो मुझे छोड़ दे।
तबाह तो की हैं ज़िन्दगी,
जीने के लिए एक नया मोड़ दे।

लेकिन फिर भी
उसने सुना नहीं।
अब मैंने भी,
किया कुछ मना नहीं।

पेट्रोल डालकर मुझे,
उसने आखिर जला ही डाला।
जाते हुए नामर्द ने,
किया मेरा ही मुंह काला।

क्या आज भी,
मेरी तरह कोई नारी शिकार है।
ऐसे नामर्द मर्दों पे,
दुनियावालो मुझे तो धिक्कार है।


कवि: स्वप्निल भोईटे

वो दर्द भी, क्या दर्द था। लूटनेवाला मुझे, एक मर्द ही था। पर मैंने भी कोशिसे, हजार की जरूर। लेकिन हार गई मैं, जीत गया उसका गुरूर। भड़क चुकी थी उसके, जिस्म में आग। लम्हा लम्हा में मरती गई, लगा मुझपे ये दाग। उसके हौसले बुलंद थे, मेरा सबकुछ लूटने के लिए। तड़प मेरी मजबूरी बनी, उसके चंगुल से छूट ने के लिए। पता नहीं लक्ष्मी और काली को, कौन मर्द डरता हैं। खुले आम नंगा कर नारी को, उसका बलात्कार करता है। अब उसका भी हुआ तृप्त आत्मा, अब तो मुझे छोड़ दे। तबाह तो की हैं ज़िन्दगी, जीने के लिए एक नया मोड़ दे। लेकिन फिर भी उसने सुना नहीं। अब मैंने भी, किया कुछ मना नहीं। पेट्रोल डालकर मुझे, उसने आखिर जला ही डाला। जाते हुए नामर्द ने, किया मेरा ही मुंह काला। क्या आज भी, मेरी तरह कोई नारी शिकार है। ऐसे नामर्द मर्दों पे, दुनियावालो मुझे तो धिक्कार है। कवि: स्वप्निल भोईटे

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