क्या उम्मीद करें हम आजकल की सरकार से क्या उम्मीद | हिंदी Poetry

"क्या उम्मीद करें हम आजकल की सरकार से क्या उम्मीद करें, धुआं - धुआं सा है गुलिस्तां, क्या उम्मीद करें। कितनी शौक और तंगिस से पढ़ाया बच्चों को, छा गई हैं बेरोजगारी, क्या उम्मीद करें। अब घर में जल रहे उन आंसूओ से चराग, निशिदिन बरस रही गरीबी,क्या उम्मीद करें। थी तमन्ना कि घर चलेगा बहुत सुकून से, ठप्प पर गई हैं नियुक्तियां, क्या उम्मीद करे। रो- रो के घर कट रही जवानी में जिन्दगी, सरकारें हुई बे-मुखब्त, क्या उम्मीद करें। लाखों हसरते पाल के रखे थे नौजवान, कट रही गुरबत में जिन्दगी, क्या उम्मीद करें। बेरोजगारी की साया से उबरा नहीं मुल्क, कुछ बन रहे उसमें माफिया, क्या उम्मीद करें। सब्र की भी होती हैं आप देखो एक सीमा, ख़ाक हो रही है वो सांसे, क्या उम्मीद करें। नवयुवक ही तो होती है किसी देश की रीढ़, उनका मर रहा है हौसला, क्या उम्मीद करें। वादा करके ही आई वजूद में सरकार, वही रौंद रही है भविष्य, क्या उम्मीद करें। ©Vishal Thakur"

 क्या उम्मीद करें

हम आजकल की सरकार से क्या उम्मीद करें,
धुआं - धुआं सा है गुलिस्तां, क्या उम्मीद करें।
कितनी शौक और तंगिस से पढ़ाया बच्चों को,
छा गई हैं बेरोजगारी, क्या उम्मीद करें।

अब घर में जल रहे उन आंसूओ से चराग,
निशिदिन बरस रही गरीबी,क्या उम्मीद करें।
थी तमन्ना कि घर चलेगा बहुत सुकून से,
ठप्प पर गई हैं नियुक्तियां, क्या उम्मीद करे।

रो- रो के घर कट रही जवानी में जिन्दगी,
सरकारें हुई बे-मुखब्त, क्या उम्मीद करें।
लाखों हसरते पाल के रखे थे नौजवान,
कट रही गुरबत में जिन्दगी, क्या उम्मीद करें।

बेरोजगारी की साया से उबरा नहीं मुल्क,
कुछ बन रहे उसमें माफिया, क्या उम्मीद करें।
सब्र की भी होती हैं आप देखो एक सीमा,
ख़ाक हो रही है वो सांसे, क्या उम्मीद करें।

नवयुवक ही तो होती है किसी देश की रीढ़,
उनका मर रहा है हौसला, क्या उम्मीद करें।
वादा करके ही आई वजूद में सरकार,
वही रौंद रही है भविष्य, क्या उम्मीद करें।

©Vishal Thakur

क्या उम्मीद करें हम आजकल की सरकार से क्या उम्मीद करें, धुआं - धुआं सा है गुलिस्तां, क्या उम्मीद करें। कितनी शौक और तंगिस से पढ़ाया बच्चों को, छा गई हैं बेरोजगारी, क्या उम्मीद करें। अब घर में जल रहे उन आंसूओ से चराग, निशिदिन बरस रही गरीबी,क्या उम्मीद करें। थी तमन्ना कि घर चलेगा बहुत सुकून से, ठप्प पर गई हैं नियुक्तियां, क्या उम्मीद करे। रो- रो के घर कट रही जवानी में जिन्दगी, सरकारें हुई बे-मुखब्त, क्या उम्मीद करें। लाखों हसरते पाल के रखे थे नौजवान, कट रही गुरबत में जिन्दगी, क्या उम्मीद करें। बेरोजगारी की साया से उबरा नहीं मुल्क, कुछ बन रहे उसमें माफिया, क्या उम्मीद करें। सब्र की भी होती हैं आप देखो एक सीमा, ख़ाक हो रही है वो सांसे, क्या उम्मीद करें। नवयुवक ही तो होती है किसी देश की रीढ़, उनका मर रहा है हौसला, क्या उम्मीद करें। वादा करके ही आई वजूद में सरकार, वही रौंद रही है भविष्य, क्या उम्मीद करें। ©Vishal Thakur

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