दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हां! | हिंदी Love Video

"दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हां! दीपक भी जलता है। सीस हिलाकर दीपक कहता - ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता कितनी विह्वलता है दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नहीं तो मरा करे क्या? क्या यह असफ़लता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है - मैथिलीशरण गुप्त ©zindagi with Neha "

दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हां! दीपक भी जलता है। सीस हिलाकर दीपक कहता - ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता कितनी विह्वलता है दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नहीं तो मरा करे क्या? क्या यह असफ़लता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है - मैथिलीशरण गुप्त ©zindagi with Neha

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