2122 1212 22/112 कोई मंजिल हमें नहीं मिलती | हिंदी कविता

"2122 1212 22/112 कोई मंजिल हमें नहीं मिलती जानता मैं नहीं है क्या ग़लती की है कोशिश फुज़ूल ना कोई लगता इसमें खुदा की है मर्ज़ी फूल दरगाह पर चढ़ाए हैं हुक़्म से रब के वो गई अर्ज़ी वो फ़क़ीरो को शाह ही रखता आलम-ए-क़ुद्स जाने हैं क़ुदसी फिर बलाए "ज़ुबैर" पर क्यों है आते जाते हुए लगे ख़टकी लेखक - ज़ुबैर खान.....✍️ ©SZUBAIR KHAN KHAN"

 2122 1212 22/112
कोई  मंजिल   हमें  नहीं    मिलती
जानता  मैं  नहीं  है   क्या   ग़लती

की  है  कोशिश  फुज़ूल  ना  कोई
लगता  इसमें  खुदा  की   है  मर्ज़ी

फूल  दरगाह    पर      चढ़ाए    हैं
हुक़्म  से रब  के  वो   गई    अर्ज़ी

वो फ़क़ीरो  को  शाह  ही   रखता 
आलम-ए-क़ुद्स  जाने  हैं  क़ुदसी

फिर  बलाए  "ज़ुबैर" पर   क्यों  है
आते  जाते  हुए    लगे    ख़टकी

लेखक - ज़ुबैर खान.....✍️

©SZUBAIR KHAN KHAN

2122 1212 22/112 कोई मंजिल हमें नहीं मिलती जानता मैं नहीं है क्या ग़लती की है कोशिश फुज़ूल ना कोई लगता इसमें खुदा की है मर्ज़ी फूल दरगाह पर चढ़ाए हैं हुक़्म से रब के वो गई अर्ज़ी वो फ़क़ीरो को शाह ही रखता आलम-ए-क़ुद्स जाने हैं क़ुदसी फिर बलाए "ज़ुबैर" पर क्यों है आते जाते हुए लगे ख़टकी लेखक - ज़ुबैर खान.....✍️ ©SZUBAIR KHAN KHAN

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