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बहुत दर्प था दर्द को मेरे न टूटूंगा, मगर आज नामोंनिशां नहीं
कण कण धूल हुआ, चीखती रही अकेले यूं ख़ामोशियों कहीं
चिलचिलाती धूप थी और अस्तित्व मिटता रहा बलिदान का
विरासत में मिला शख्स बहुत बूढ़ा था, अपने खानदान का
दिवस के उस क्षण का जो अनायास बिखेरती रही उम्मीदें मेरी
चला गया नयन कुछ मांग रहे थे उसी फटे पुराने लिबास में
मिलेगा प्रेम वही जो सौंपा है प्राण पखेरू उखड़े उसी आस में।।
©Shilpa Yadav
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