बस से अपने शहर से सवारी बन कर गुज़र जाने की टीस बहु

"बस से अपने शहर से सवारी बन कर गुज़र जाने की टीस बहुत बड़ी होती है। जब शहर सो रहा होता है तब मुसाफ़िर जागता रहता है। कंडक्टर की एक आवाज़ कि दस मिनट का स्टॉप है चाय-वाय पीना हो तो पी लो। तो बरबस ही यात्री उतर आता है नीचे तफरी करता है चाय भी फिर पी ही लेता है। सोचता है कितना पास है घर पैदल कितनी ही बार यहां तक आया एक किलोमीटर ही तो है और बाइक से, ऑटो से दो मिनट भी नहीं लगते। काश कोई अपना ही दिख जाए कोई पहचान ले। यात्री के साथ यात्रा करने लगती हैं यादें जो घर परिवार और दोस्तों से जुड़ी हैं, कबसे नहीं मिला सबसे। कितनी ही बार चौराहे की चाय पीने दोस्तों के साथ आया और घर की चाय छोड़ दी। आज वही चाय का कप हाथ में है पर वो मज़ा नहीं है पता नहीं क्यों माँ के हाथ की बनी अदरक वाली चाय पीने का मन है। सामने पोहा है पर पोहा तो घर का बना खाने का मन है। मन का क्या है वह तो कहीं भी दौड़ सकता है। दूसरे दिन की शुरुआत हो चुकी है शहर नींद के आगोश में है इतने वक़्त तक तो घर पर कोई जागता नहीं पर कई बार जब कहीं से बस या ट्रैन से लौट कर आता है बेटा तो 60 के हो चले मां बाप करते रहते हैं इंतेज़ार जो 09 बजे ही सो जाते हैं घर पर। बहुत सुकून होता है उन्हें बेटे के आने पर। ऐसे मौसम में माँ के हाथ के बने मैथी के परांठे उनकी बात ही अलग होती है। वह तुरंत आ जाती है और थाली लगा देती है मानो इसलिए ही जगी हो और फिर निश्चिन्त हो सोने चली जाती है। इतने में आ जाती आवाज़ "चलो भाई अपनी अपनी सीट पर चलो टाइम हो गया"। शरीर यहीं रहा और मन? मन तो घर पर ही रह गया। अटक गया उस कमरे में जिसमें सो रही है ढाई साल की प्यारी बेटी जिसे अपनी बांह में चमीटे है लेटी है उनींदी उसकी माँ और डबल बेड दूसरे किनारे पर जहां वह सोता है वहां अब रखा होता है एक ढोलकनुमा भारी लोड और तकिया ताकि बिटिया महफ़ूज़ रहे करवट लेते वक्त भी। बेटी की माँ भी इंतेज़ार करती रहती है इनके आने का। बस का हॉर्न मन को बुलाता है चल भाई वक़्त हो गया है बस निकलने वाली है, मन चला आता है बेमन से। अब सीट पर है शरीर और वह वहीं अटक गया घर में, नींद उड़ गई है। कब मोबाइल देखते-देखते आधे घंटे के लिए आंख लगती ही है कि कंडक्टर फिर आवाज़ लगाता है "चलो भाई लालघाटी, लालघाटी वाले आ जाओ। हर किसी को जल्दी है अब बस से उतरने की पर यह यात्री सबसे आखिर में उतरता है उनींदा बेमन सा। #बेचैनमनकीयात्र ©Nagendra Chaturvedi"

 बस से अपने शहर से सवारी बन कर गुज़र जाने की टीस बहुत बड़ी होती है। जब शहर सो रहा होता है तब मुसाफ़िर जागता रहता है। कंडक्टर की एक आवाज़ कि दस मिनट का स्टॉप है चाय-वाय पीना हो तो पी लो। तो बरबस ही यात्री उतर आता है नीचे तफरी करता है चाय भी फिर पी ही लेता है। सोचता है कितना पास है घर पैदल कितनी ही बार यहां तक आया एक किलोमीटर ही तो है और बाइक से, ऑटो से दो मिनट भी नहीं लगते। काश कोई अपना ही दिख जाए कोई पहचान ले।
यात्री के साथ यात्रा करने लगती हैं यादें जो घर परिवार और दोस्तों से जुड़ी हैं, कबसे नहीं मिला सबसे। कितनी ही बार चौराहे की चाय पीने दोस्तों के साथ आया और घर की चाय छोड़ दी। आज वही चाय का कप हाथ में है पर वो मज़ा नहीं है पता नहीं क्यों माँ के हाथ की बनी अदरक वाली चाय पीने का मन है। सामने पोहा है पर पोहा तो घर का बना खाने का मन है। मन का क्या है वह तो कहीं भी दौड़ सकता है।

दूसरे दिन की शुरुआत हो चुकी है शहर नींद के आगोश में है इतने वक़्त तक तो घर पर कोई जागता नहीं पर कई बार जब कहीं से बस या ट्रैन से लौट कर आता है बेटा तो 60 के हो चले मां बाप करते रहते हैं इंतेज़ार जो 09 बजे ही सो जाते हैं घर पर। बहुत सुकून होता है उन्हें बेटे के आने पर। ऐसे मौसम में माँ के हाथ के बने मैथी के परांठे उनकी बात ही अलग होती है। वह तुरंत आ जाती है और थाली लगा देती है मानो इसलिए ही जगी हो और फिर निश्चिन्त हो सोने चली जाती है।

इतने में आ जाती आवाज़ "चलो भाई अपनी अपनी सीट पर चलो टाइम हो गया"। शरीर यहीं रहा और मन? मन तो घर पर ही रह गया। अटक गया उस कमरे में जिसमें सो रही है ढाई साल की प्यारी बेटी जिसे अपनी बांह में चमीटे है लेटी है उनींदी उसकी माँ और डबल बेड दूसरे किनारे पर जहां वह सोता है वहां अब रखा होता है एक ढोलकनुमा भारी लोड और तकिया ताकि बिटिया महफ़ूज़ रहे करवट लेते वक्त भी। बेटी की माँ भी इंतेज़ार करती रहती है इनके आने का।

बस का हॉर्न मन को बुलाता है चल भाई वक़्त हो गया है बस निकलने वाली है, मन चला आता है बेमन से। अब सीट पर है शरीर और वह वहीं अटक गया घर में, नींद उड़ गई है। कब मोबाइल देखते-देखते आधे घंटे के लिए आंख लगती ही है कि कंडक्टर फिर आवाज़ लगाता है "चलो भाई लालघाटी, लालघाटी वाले आ जाओ। हर किसी को जल्दी है अब बस से उतरने की पर यह यात्री सबसे आखिर में उतरता है उनींदा बेमन सा।
#बेचैनमनकीयात्र

©Nagendra Chaturvedi

बस से अपने शहर से सवारी बन कर गुज़र जाने की टीस बहुत बड़ी होती है। जब शहर सो रहा होता है तब मुसाफ़िर जागता रहता है। कंडक्टर की एक आवाज़ कि दस मिनट का स्टॉप है चाय-वाय पीना हो तो पी लो। तो बरबस ही यात्री उतर आता है नीचे तफरी करता है चाय भी फिर पी ही लेता है। सोचता है कितना पास है घर पैदल कितनी ही बार यहां तक आया एक किलोमीटर ही तो है और बाइक से, ऑटो से दो मिनट भी नहीं लगते। काश कोई अपना ही दिख जाए कोई पहचान ले। यात्री के साथ यात्रा करने लगती हैं यादें जो घर परिवार और दोस्तों से जुड़ी हैं, कबसे नहीं मिला सबसे। कितनी ही बार चौराहे की चाय पीने दोस्तों के साथ आया और घर की चाय छोड़ दी। आज वही चाय का कप हाथ में है पर वो मज़ा नहीं है पता नहीं क्यों माँ के हाथ की बनी अदरक वाली चाय पीने का मन है। सामने पोहा है पर पोहा तो घर का बना खाने का मन है। मन का क्या है वह तो कहीं भी दौड़ सकता है। दूसरे दिन की शुरुआत हो चुकी है शहर नींद के आगोश में है इतने वक़्त तक तो घर पर कोई जागता नहीं पर कई बार जब कहीं से बस या ट्रैन से लौट कर आता है बेटा तो 60 के हो चले मां बाप करते रहते हैं इंतेज़ार जो 09 बजे ही सो जाते हैं घर पर। बहुत सुकून होता है उन्हें बेटे के आने पर। ऐसे मौसम में माँ के हाथ के बने मैथी के परांठे उनकी बात ही अलग होती है। वह तुरंत आ जाती है और थाली लगा देती है मानो इसलिए ही जगी हो और फिर निश्चिन्त हो सोने चली जाती है। इतने में आ जाती आवाज़ "चलो भाई अपनी अपनी सीट पर चलो टाइम हो गया"। शरीर यहीं रहा और मन? मन तो घर पर ही रह गया। अटक गया उस कमरे में जिसमें सो रही है ढाई साल की प्यारी बेटी जिसे अपनी बांह में चमीटे है लेटी है उनींदी उसकी माँ और डबल बेड दूसरे किनारे पर जहां वह सोता है वहां अब रखा होता है एक ढोलकनुमा भारी लोड और तकिया ताकि बिटिया महफ़ूज़ रहे करवट लेते वक्त भी। बेटी की माँ भी इंतेज़ार करती रहती है इनके आने का। बस का हॉर्न मन को बुलाता है चल भाई वक़्त हो गया है बस निकलने वाली है, मन चला आता है बेमन से। अब सीट पर है शरीर और वह वहीं अटक गया घर में, नींद उड़ गई है। कब मोबाइल देखते-देखते आधे घंटे के लिए आंख लगती ही है कि कंडक्टर फिर आवाज़ लगाता है "चलो भाई लालघाटी, लालघाटी वाले आ जाओ। हर किसी को जल्दी है अब बस से उतरने की पर यह यात्री सबसे आखिर में उतरता है उनींदा बेमन सा। #बेचैनमनकीयात्र ©Nagendra Chaturvedi

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