औरत
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ख़ुद में अदाओं का तूफ़ां लिए बैठी है कभी लबों से ख़ुदा की इबादत किए बैठी है अपनी पलकों में सपनों का जहां लिए बैठी है दिल में प्यार का आसमां लिए बैठी है
समाज में एक ओहदा, एक मुक़ाम लिए बैठी है कभी अपने हुस्न का जाम लिए बैठी है दूसरों के गुनाहों का अंजाम लिए बैठी है कभी रोटी के लिए खुद की नुमाइश का ज़िम्मा, सरेआम लिए बैठी है
अपने हक़ीक़त को ख़ामोशी से बयां किए बैठी है न जाने क्यों ख़ुद को मार कर, औरों के लिए जिए बैठी है ये जनंनी बन अपने अंदर ममता बेपनाह लिए बैठी है ख़ुदा की नायाब नेमतें, बेइंतेहां लिए बैठी है
मनीष राज
©Manish Raaj
#औरत