Village Life वो लिखा ही नहीं.....
खुली खेतों की पगडंडी पर मस्ती से चलना
धान गेहूं मक्का के शीश को तोड़ फिर वही फेक देना
हमने वह भी किया जामुन के पेड़ों पर दिन भर लटकना
पर कौन लिखें, ..? वो दिन ....वह बचपना के मस्ती भरी बातें
जिक्र अब कर लेते हैं, हां शब्दों में रख लेते हैं
पर हम किसी से ये नहीं कह पाते हैं कि......
उन दिनों की याद शहरों में रोज आतें हैं....
जब एक कमरे में दिन की सूय बल्ब हो...
गांव छोड़ शहर के किसी मकान में जब घर हो
हां ये सच है कि उस कमरे को रूम ही कहते हैं,
घर की रौनक वहां कहां, , क्योकि अपना घर तो गांव में होते हैं
हमने वो लिखा ही नहीं, जब से शहर ए जाम हाला पीएं है
गांव की भूख लगते ही शहर छोड़ गांव की ओर भागे है
बहुत छुपाना पड़ता है अपने आप को ......
कुछ झूठी कहानी बतानी पड़ती है अपनों को....
हां इतना बड़े हो जाते हैं कि सब ख़ुद ही देख लेते हैं
घर से फ़ोन जब भी आएं सब ठीक है यही सब बतलाते हैं
भले दिन औ रात यूं खुले आंखों में बीतें हो
सपना और सफ़र कुछ नहीं समझ में आतें हो
शब्दों की गाढ़े भी मन को मजबूत न कर पाते हो
तब ख़ुद शब्द बन कुछ कहने, लिखने को आतुर हुए है....
फिर भी वह लिखा ही नहीं...... वही जो दर्द ए ताज बनी है....
©Dev Rishi
#villagelife #वो लिखा ही नहीं