रेत सा मुट्ठी से फिसल रहा है ये वक़्त अब यूँही निकल

"रेत सा मुट्ठी से फिसल रहा है ये वक़्त अब यूँही निकल रहा है। जमाने बीत गये हों जैसे जमाने की तरहा, ये चाँद सूरज को कुछ यूँ निगल रहा है सिमट गया है वो हर इक पल, जो हंसी ख्वाब था कभी रातों का सन्नाटा कह रहा है, ये दिन अब यूँही ढल रहा है। ©Gargi writes"

 रेत सा मुट्ठी से फिसल रहा है
ये वक़्त अब यूँही निकल रहा है।
जमाने बीत गये हों जैसे जमाने की तरहा,
ये चाँद सूरज को कुछ यूँ निगल रहा है
सिमट गया है वो हर इक पल,
जो हंसी ख्वाब था कभी
रातों का सन्नाटा कह रहा है,
ये दिन अब यूँही ढल रहा है।

©Gargi writes

रेत सा मुट्ठी से फिसल रहा है ये वक़्त अब यूँही निकल रहा है। जमाने बीत गये हों जैसे जमाने की तरहा, ये चाँद सूरज को कुछ यूँ निगल रहा है सिमट गया है वो हर इक पल, जो हंसी ख्वाब था कभी रातों का सन्नाटा कह रहा है, ये दिन अब यूँही ढल रहा है। ©Gargi writes

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