मुट्ठी बंद करके आएँ थे इस जहान में,
मासूमियत यूँ ही झलकती थी आँखों से तब।
पर धीरे धीरे इस दुनिया के दस्तूरों से हमें गुनाहगार बना दिया
और हम बेज़ार हो गए।
कभी बेरुख़ी से भरे तो कभी संवेदनाओं से खाली हो गए।
हम मुट्ठी खोल कर बाग़ी हो गए,
हम मुट्ठी खोल कर बाग़ी हो गए।
©Deepika Mishra
मुट्ठी बंद करके आएँ थे इस जहान में,
मासूमियत यूँ ही झलकती थी आँखों से तब।
पर धीरे धीरे इस दुनिया के दस्तूरों से हमें गुनाहगार बना दिया
और हम बेज़ार हो गए।
कभी बेरुख़ी से भरे तो कभी संवेदनाओं से खाली हो गए।