सुंसान पड़ी ये धरा यहाँ, चुप्पी को जो साधे बैठी ह | हिंदी Poetry Video

"सुंसान पड़ी ये धरा यहाँ, चुप्पी को जो साधे बैठी है, तुम क्या जानो क्या बीती थी, बारूद यहाँ जब आग हुआ। दिन के उजाले में बच्चे भी स्कूल को जाया करते थे, औरों के गाँव के जैसे, वो भी इठलाया करते थे। जब काम पे जाते लोगों की, किलकारी गुंजा करती थी, रातों के चादर मे माएँ, परियों की कहानी गढ़ती थी। था अस्पताल कुछ दूरी पर, आँखों में न आँसू आते थे, हर टोली साथ खड़ी होती, हर उत्सव धूम मानते थे। ये गाँव बसा था पास वही, सरहद की सीमा लांघे था, था पता कहाँ इन लोगों को, किस देश मे इनकी गिनती थी। दो देश वहाँ जब भीड़ बैठे इस गाँव की हस्ती शून्य हुई, जो आज महज बस खण्डहर है, होती थी कभी कुशल बस्ती। जिस कूप दृश्य के साक्षी हो, विस्फोट से पहले जीवित था, है शांत यहाँ कोना कोना , है सनी लहू से ये धरती। ©Trisha09 "

सुंसान पड़ी ये धरा यहाँ, चुप्पी को जो साधे बैठी है, तुम क्या जानो क्या बीती थी, बारूद यहाँ जब आग हुआ। दिन के उजाले में बच्चे भी स्कूल को जाया करते थे, औरों के गाँव के जैसे, वो भी इठलाया करते थे। जब काम पे जाते लोगों की, किलकारी गुंजा करती थी, रातों के चादर मे माएँ, परियों की कहानी गढ़ती थी। था अस्पताल कुछ दूरी पर, आँखों में न आँसू आते थे, हर टोली साथ खड़ी होती, हर उत्सव धूम मानते थे। ये गाँव बसा था पास वही, सरहद की सीमा लांघे था, था पता कहाँ इन लोगों को, किस देश मे इनकी गिनती थी। दो देश वहाँ जब भीड़ बैठे इस गाँव की हस्ती शून्य हुई, जो आज महज बस खण्डहर है, होती थी कभी कुशल बस्ती। जिस कूप दृश्य के साक्षी हो, विस्फोट से पहले जीवित था, है शांत यहाँ कोना कोना , है सनी लहू से ये धरती। ©Trisha09

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