ग़ज़ल वो सभी तो धनी से मिलते हैं । वो कहाँ आदमी से | हिंदी शायरी

"ग़ज़ल वो सभी तो धनी से मिलते हैं । वो कहाँ आदमी से मिलते हैं ।।१ रात दिन की बेकसी से मिलते हैं । फिर नहीं वो किसी से मिलते हैं ।।२ यार सागर समझ ले तू उनको । आजकल वो सभी से मिलते हैं ।।३ क्या उन्हें हम समझ ले अब कान्हा । इस तरह जो बासुरी से मिलते है ।।४ जाने क्या हो गया सनम को अब । आजकल बेरुखी से मिलते हैं ।।५ वो दिखाकर गये हमें तारा । लौटकर हम तुम्ही से मिलते हैं ।।६ ख़्व़ाब आकर चले गये सारे । अब गले हम ख़ुदी से मिलते हैं ।।७ अब कहीं और जी नहीं लगता । चल उसी जलपरी से मिलते हैं ।।८ यूँ तो घड़ियां गुजार दूँ तुम बिन । डर है की ज़िन्दगी से मिलते हैं ।।९ बीवियाँ अब नहीं सँवरती घर । चल खिली फिर कली से मिलते हैं ।।१० प्यार में इस तरह प्रखर पागल । छोड़ जग गृहिणी से मिलते हैं ।।११ महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR"

 ग़ज़ल

वो सभी तो धनी से मिलते हैं ।
वो कहाँ आदमी से मिलते हैं ।।१
रात दिन की बेकसी से मिलते हैं ।
फिर नहीं वो किसी से मिलते हैं ।।२
यार सागर समझ ले तू उनको ।
आजकल वो सभी से मिलते हैं ।।३
क्या उन्हें हम समझ ले अब कान्हा ।
इस तरह जो बासुरी से मिलते है ।।४
जाने क्या हो गया सनम को अब ।
आजकल बेरुखी से मिलते हैं ।।५
वो दिखाकर गये हमें तारा ।
लौटकर हम तुम्ही से मिलते हैं ।।६
ख़्व़ाब आकर चले गये सारे ।
अब गले हम ख़ुदी से मिलते हैं ।।७
अब कहीं और जी नहीं लगता ।
चल उसी जलपरी से मिलते हैं ।।८
यूँ तो घड़ियां गुजार दूँ तुम बिन ।
डर है की ज़िन्दगी से मिलते हैं ।।९
बीवियाँ अब नहीं सँवरती घर ।
चल खिली फिर कली से मिलते हैं ।।१०
प्यार में इस तरह प्रखर पागल ।
छोड़ जग गृहिणी से मिलते हैं ।।११

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

ग़ज़ल वो सभी तो धनी से मिलते हैं । वो कहाँ आदमी से मिलते हैं ।।१ रात दिन की बेकसी से मिलते हैं । फिर नहीं वो किसी से मिलते हैं ।।२ यार सागर समझ ले तू उनको । आजकल वो सभी से मिलते हैं ।।३ क्या उन्हें हम समझ ले अब कान्हा । इस तरह जो बासुरी से मिलते है ।।४ जाने क्या हो गया सनम को अब । आजकल बेरुखी से मिलते हैं ।।५ वो दिखाकर गये हमें तारा । लौटकर हम तुम्ही से मिलते हैं ।।६ ख़्व़ाब आकर चले गये सारे । अब गले हम ख़ुदी से मिलते हैं ।।७ अब कहीं और जी नहीं लगता । चल उसी जलपरी से मिलते हैं ।।८ यूँ तो घड़ियां गुजार दूँ तुम बिन । डर है की ज़िन्दगी से मिलते हैं ।।९ बीवियाँ अब नहीं सँवरती घर । चल खिली फिर कली से मिलते हैं ।।१० प्यार में इस तरह प्रखर पागल । छोड़ जग गृहिणी से मिलते हैं ।।११ महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

ग़ज़ल


वो सभी तो धनी से मिलते हैं ।

वो कहाँ आदमी से मिलते हैं ।।१

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