"हम रोज़ लिखते हैं थोड़ा-थोड़ा, ये सोचकर के,
कभी न कभी, कोई हमें भी पढ़ता होगा...
हर तहरीर में, किसी का ज़िक्र छेड़ देते हैं हम के,
इसी बहाने, कोई हमें भी याद करता होगा...
बार-बार दरवाज़े पे नज़रें, ठहर सी जाती है के,
किसी को, हमारा भी इंतज़ार रहता होगा...
माना के वो लोग जुबाँ से, बयां नहीं कर पाते,
मगर तन्हाई में कोई हमें भी पुकारता होगा...
हर लफ़्ज़ दर्द की स्याही में डूबाकर लिखते हैं के,
इन अल्फ़ाज़ों को,कोई तो महसूस करता होगा...
©Ak.writer_2.0
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