रात की तन्हाई रात पहरों में टूट रही
अँधेरा बढ़ रहा है ।
कहि दूर छिटकी चांदनी पर
मोहबत्त का, रंग चढ़ रहा है ।।
आज चांद भी है खाली
आशिक़ी से कहि दूर।
फिर भी झलक रही
चेहरे से खिलती नूर।।
इस वक़्त के तकाज़े में
फंस गए बेतरतीब से।
भटक रहे दरबदर
उसके थोड़े करीब से।।
उस करीबी के आलम में
फासलों की बंदिश है।
गुमनाम खामोशियाँ और
ढ़ेर सारी रंजिश है।।
©Pratik Rajput
रात पहरों में टूट रही
अँधेरा बढ़ रहा है ।
कहि दूर छिटकी चांदनी पर
मोहबत्त का रंग चढ़ रहा है ।।
आज चांद भी है खाली
आशिक़ी से कहि दूर।
फिर भी झलक रही