दर्द में भी अश्क बहते नहीं अब,
आ मेरी आँखों में अपने आब देजा,
मुंतज़िर बैठे हैं जो सदियों से हम,
आ इस तपस्या का मुझे इनाम देजा,
हिज़्र की रात है और सबा भी हसीं है,
मेरी ज़िंदगी में आ थोड़ा क़याम देजा,
मय के प्याले भी खाली पड़े हैं अब,
आ अपनी आंखों का थोड़ा इनमें ज़ाम देजा...।।
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