ग़ज़ल :-
ज़र जमीं की जब वसीयत हो गई ।
टेढ़ी उन बेटो की नीयत हो गई ।।
दुरुस्त वालिद की तबीयत हो गई ।
जान को उनकी मुसीबत हो गई ।।
जिस तरह औलाद खिदमत कर रही ।
देखकर ये आज हैरत हो गई ।।
चाहते तो एक बेटा हम भी पर ।
पूर्ण बेटी से वो हसरत हो गई ।।
जिस तरह बेचैन हूँ उनके लिए ।
लग रहा मुझे भी मुहब्बत हो गई ।।
मैं रहा बेताब जिस औलाद को ।
क्या कहूँ वो ही मशक्कत हो गई ।।
प्यार की मैं क्या सुनाऊँ दास्ताँ ।
नाम से उसके ही दहशत हो गई ।।
झूठ सच का ये हुआ है फैसला ।
दुश्मनों के घर अदालत हो गई ।।
कल तलक बेटी प्रखर के घर में थी ।
अब पराई यार दौलत हो गई ।।
महेन्द्र सिंह प्रखर
©MAHENDRA SINGH PRAKHAR
ग़ज़ल :-
ज़र जमीं की जब वसीयत हो गई ।
टेढ़ी उन बेटो की नीयत हो गई ।।
दुरुस्त वालिद की तबीयत हो गई ।
जान को उनकी मुसीबत हो गई ।।
जिस तरह औलाद खिदमत कर रही ।
देखकर ये आज हैरत हो गई ।।
चाहते तो एक बेटा हम भी पर ।