हो ना अजस्र तमस्विनी तुम आज
निर्भीक अपनी अक्षुण्ण लहक पर
संदल सी महमहाती छूती हवा-गुज़र
मस्ताती, तुम्हारी रगों को तृप्त करती
आमोद से दरख़्तों की सनसनाती पत्तियाँ
मानो पास बुलाकर तुमसे अनुनय चाहती
वो एक वृहत कोई शून्य स्थान नहीं, मेघवर्णी
तुम्हारे बेशक़ीमती नवरतो का झिलमिल बसेरा
महताब वो उस जहान का खूब दमकता हाँ,
हो तुम भी एक चाँद सा सौरम्य चेहरा
©Viraaj Sisodiya
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