आजकल के दौर में नफ़रत भी आम हैं।
कश्मकश में जी रही अवाम ऐ तमाम हैं।
रिश्तों की अहमियत खो रही नफ़रत के दौर में,
दौलत की आरजू में घर उजड़े तमाम हैं।
क़ौम के चारों तरफ फैले हैं आसारे क़दीमा की यादें,
ज़िल्लत में रो पड़े वो महराब ऐ तमाम हैं।
झूठ फ़रेब को अखबारों में इशाअत करने वालो सुनो,
सच की रोशनी बिखेरने वाले 'क़मर' अभी ज़िंदा तमाम हैं।
रोज़ी रोटी के लिए किनारों पे रोते हुए मिले कई ग़रीब,
क्या रोटी का भी है मज़हब ठेले पे परचम लगाए तमाम हैं।
©Mohd Kamruzzama
नफरत का दौर @Sana naaz. @Sethi Ji @Anshu writer निज़ाम खान Rakhie.. "दिल की आवाज़"