"रसोई"
ये रसोई का दरवाजा ,
दिल नहीं करता अंदर जाने को।
ये बर्तन ,ये दीवारें,पानी से भरे सुराहें।
रोज की इनसे लड़ाई ,आँखें छलछलाई।
कभी दूध उबलता आंच बुझती।
चाय की एक कप न एक चुस्की।
आवाज़ इधर से आती है,
आवाज़ उधर से आती है।
मेरा टॉवल,मेरी चाय,मेरा नास्ता,
मेरा टिफिन,दी बना दो मेरा पास्ता।
दो हाथ ही होते हैं,उन्हें कहां रोके हैं।
तन थक गया मन थक गया
पर खुद को कहाँ टोके हैं।
एक पल इनसे चुराने को,
खुद को खुद से मिलाने को,
एक दिन का काम छुड़ाने को,
अस्त व्यस्त हो जाती है
घर की धरती भी रो जाती है।
एक लम्हा जो नज़र न आए,
बस पुकार ही पुकार हो जाती है,
खुद के लिए कोई वक़्त ही नहीं,
रसोई की ही बस हो जाती है।
खुद के लिए क्या जी पाती है।।
©दीपा साहू "प्रकृति"
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"रसोई"
रसोई का दरवाजा ,
दिल नहीं करता अंदर जाने को।
ये बर्तन ,ये दीवारें,पानी से भरे सुराहें।
रोज की इनसे लड़ाई ,आँखें छलछलाई।
कभी दूध उबलता आंच बुझती।
चाय की एक कप न एक चुस्की।