मेरा जो घर था, वो घर कहाँ गया? अपनों का | हिंदी Shayari

"मेरा जो घर था, वो घर कहाँ गया? अपनों का डर था, वो डर कहाँ गया? जो बताते रहता है मेरी गलतियाँ मुझे; खुद पर आ ई, तो घबरा कर कहाँ गया? पता है मुझे की वो तो चला गया है; कोई पता तो करो, मग़र कहाँ गया? यार पीठ पर तेरी इतने खंज़र कैसे; इंसान पहचान ने का हुनर कहाँ गया? वहाँ तो हमेशा उजाला ही होता है; रोशनी फ़ैलाने 'दीप' तू उधर कहाँ गया?"

 मेरा   जो  घर  था,  वो  घर  कहाँ  गया? 
अपनों  का  डर  था,  वो डर कहाँ गया? 

जो  बताते  रहता  है मेरी गलतियाँ मुझे;
खुद पर आ ई, तो घबरा कर कहाँ गया? 

पता  है मुझे  की  वो  तो  चला  गया है;
कोई  पता  तो  करो,  मग़र  कहाँ गया? 

यार  पीठ  पर  तेरी  इतने  खंज़र  कैसे;
इंसान  पहचान  ने  का हुनर कहाँ गया? 

वहाँ  तो   हमेशा  उजाला  ही  होता  है;
रोशनी फ़ैलाने 'दीप' तू उधर कहाँ गया?

मेरा जो घर था, वो घर कहाँ गया? अपनों का डर था, वो डर कहाँ गया? जो बताते रहता है मेरी गलतियाँ मुझे; खुद पर आ ई, तो घबरा कर कहाँ गया? पता है मुझे की वो तो चला गया है; कोई पता तो करो, मग़र कहाँ गया? यार पीठ पर तेरी इतने खंज़र कैसे; इंसान पहचान ने का हुनर कहाँ गया? वहाँ तो हमेशा उजाला ही होता है; रोशनी फ़ैलाने 'दीप' तू उधर कहाँ गया?

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