"तरु की शाख़
एक बेजान-सी तरु की शाख़ अपने
उजाड़पन की जाने कैसी दास्तां सुना
जाती है,
सुन्दरता अपनी खोकर भी
जीने की चाह रखकती है,
अंधरुनी मंद मंद अश्रु बहाती है,
जानें कितने पड़ावों को पार करती
सुख दुख के अनुभवों को महसूस करती
एक तरु शाख़
धरा पर अवतरित अपने अस्तित्व के
ढ़लाव पर बस जीते चली जाती है
बस जीते चली जाती है..!
©भारतीय लेखिका तरुणा शर्मा तरु"