शीर्षक ज़माना हंसता रहा
विधा ग़ज़ल
कलाम स्वरचित ग़ज़ल
न पूछ ज़माने में कितना ग़म है जितना भी है हमारा
ग़म भी शामिल हैं,
रोशन हो आशियाना जरुरी तो नहीं,
ज़माना हंसता है जब आशियाना अपना जलता है,
और ज़माना हंसता रहा....(स्वरचित-ग़ज़ल)
जब लगी चिंगारी आशियां में मिरे ज़माना हँसता रहा
ख़ाक हुई ख़्वाहिशें मिरी तो बेरहम ज़माना हँसता रहा,
जख़्म मिरे कुरेदे जा रहे थे पुराने सरेआम महफ़िल में,
मिटती रही अश्कों तले हस्ती मिरी तो ज़माना हँसता रहा
हुई जब तबाह दुनिया मिरी दिल मिरा सहम सा गया गया,
छिन गया चैन ओ सुकूं मिरा चंद टुकड़ों में ज़ार ज़ार हुआ
उठा तूफां टूटी क़श्ती कुछ इस कदर फ़ना हुई ज़िन्दगी में मिरी,
तमाशबीन जमाना हँसता रहा पत्थर थे गिरे ज़हरीले लफ़्ज़ों के,
इक-इक अश्क़ पर मिरे वाह-वाह होती रही ख़ामोशी इख़्तियार किये हुए कलम से अल्फ़ाज़ यूं निकलें तरु मायूस होती रही,
और ज़माना हँसता रहा.. और ज़माना हँसता रहा..!
तरुणा शर्मा तरु
ज़िन्दगी के इम्तिहान भी हरा देते हैं अक्सर,,
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