स्वप्न वह  सुरमई सा  अधखुली पलकों का  दूर कहीं अंब | हि

"स्वप्न वह  सुरमई सा  अधखुली पलकों का  दूर कहीं अंबर के उस पार  मुस्काया था एक चाँद  जैसे घुँघरू बंध गए हों  दिशाओं के।  लाज खींच गई थी पूरब की कनपटियों तक।  उस सिंदूरी अंबर में  दौड़ता मेरा स्वप्न  तारों की झुरमुट से  करता सरगोशियाँ  कभी निहारिकाओं के संग  खिलखिलाता  खींचता चाँदनी को  अपनी अंजुरी में  कभी सांसों में भरता रजनीगंधा की भीनी सी महक।  टोहता कभी  भोर की किरण को  फिर रश्मियों के संग  खुलता मेरे अन्तर में  रेशमी गाँठ की तरह।  साँझ के ढलते ही  खींच कर लाता  चांँद को बालकनी के बीच  और फिर वहीं  टिका देता अधर में स्थिर!  तब निहारता मन मुग्ध नयन   सम्मुख मेरे  मेरा स्वप्न  वह …..! ©Dr Usha Kiran "

स्वप्न वह  सुरमई सा  अधखुली पलकों का  दूर कहीं अंबर के उस पार  मुस्काया था एक चाँद  जैसे घुँघरू बंध गए हों  दिशाओं के।  लाज खींच गई थी पूरब की कनपटियों तक।  उस सिंदूरी अंबर में  दौड़ता मेरा स्वप्न  तारों की झुरमुट से  करता सरगोशियाँ  कभी निहारिकाओं के संग  खिलखिलाता  खींचता चाँदनी को  अपनी अंजुरी में  कभी सांसों में भरता रजनीगंधा की भीनी सी महक।  टोहता कभी  भोर की किरण को  फिर रश्मियों के संग  खुलता मेरे अन्तर में  रेशमी गाँठ की तरह।  साँझ के ढलते ही  खींच कर लाता  चांँद को बालकनी के बीच  और फिर वहीं  टिका देता अधर में स्थिर!  तब निहारता मन मुग्ध नयन   सम्मुख मेरे  मेरा स्वप्न  वह …..! ©Dr Usha Kiran

#स्वप्न वह

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