मैं देखता हूं पशु मेले में बिकने जाते हुए पशु विरो | हिंदी विचार

"मैं देखता हूं पशु मेले में बिकने जाते हुए पशु विरोध नहीं करते। महिंद्रा पिकअप में बंधे रहते हैं वह दो फीट लंबी एक छोटी सी रस्सी से, खड़े खड़े करते हैं यात्रा गांव से पशुहाट की ओर। और उतार दिए जाते हैं हाट में सैंकड़ों की भीड़ में। मालिक करता है अच्छी कीमत मिलने का इंतजार। करते रहते हैं जुगाली और जरूरी जांच के बाद वह बिक जाते हैं और चल पड़ते हैं अपने नए मालिक के घर। बूढ़े हो जाने पर कोई इनपर ध्यान नहीं देता और हांक दिए जाते हैं यहां वहां। यही मूल अंतर है मानव और पशु में कि पशु विरोध नहीं करते, ना कह पाते हैं अपने मन की बात। पर मानव सोच सकता है, विरोध कर सकता है, चुनने की आजादी है उसे। पर मानव हो जाता है पशु जब वह विरोध नहीं करता और चुन लेता है हर किसी को बिना जांचे परखे एक लंबे अरसे के लिए। फिर कोसता रहता है अपने नए चुनाव को जब आशाओं के विपरीत आने लगते हैं रुझान और करता रहता है परिवर्तन का इंतज़ार। बस यही एक मूल अंतर है या बराबरी भी कहें कि एक मौके पर मानव भी हो जाता है हाट बाजार के पशु; जो विरोध नहीं करते।।। © नगेंद्र ©Nagendra Chaturvedi"

 मैं देखता हूं पशु मेले में बिकने जाते हुए पशु विरोध नहीं करते। महिंद्रा पिकअप में बंधे रहते हैं वह दो फीट लंबी एक छोटी सी रस्सी से, खड़े खड़े करते हैं यात्रा गांव से पशुहाट की ओर।

और उतार दिए जाते हैं हाट में सैंकड़ों की भीड़ में। मालिक करता है अच्छी कीमत मिलने का इंतजार। करते रहते हैं जुगाली और जरूरी जांच के बाद वह बिक जाते हैं और चल पड़ते हैं अपने नए मालिक के घर।

बूढ़े हो जाने पर कोई इनपर ध्यान नहीं देता और हांक दिए जाते हैं यहां वहां। यही मूल अंतर है मानव और पशु में कि पशु विरोध नहीं करते, ना कह पाते हैं अपने मन की बात।

पर मानव सोच सकता है, विरोध कर सकता है, चुनने की आजादी है उसे। पर मानव हो जाता है पशु जब वह विरोध नहीं करता और चुन लेता है हर किसी को बिना जांचे परखे एक लंबे अरसे के लिए।

फिर कोसता रहता है अपने नए चुनाव को जब आशाओं के विपरीत आने लगते हैं रुझान और करता रहता है परिवर्तन का इंतज़ार। बस यही एक मूल अंतर है या बराबरी भी कहें कि एक मौके पर मानव भी हो जाता है हाट बाजार के पशु; जो विरोध नहीं करते।।।
© नगेंद्र

©Nagendra Chaturvedi

मैं देखता हूं पशु मेले में बिकने जाते हुए पशु विरोध नहीं करते। महिंद्रा पिकअप में बंधे रहते हैं वह दो फीट लंबी एक छोटी सी रस्सी से, खड़े खड़े करते हैं यात्रा गांव से पशुहाट की ओर। और उतार दिए जाते हैं हाट में सैंकड़ों की भीड़ में। मालिक करता है अच्छी कीमत मिलने का इंतजार। करते रहते हैं जुगाली और जरूरी जांच के बाद वह बिक जाते हैं और चल पड़ते हैं अपने नए मालिक के घर। बूढ़े हो जाने पर कोई इनपर ध्यान नहीं देता और हांक दिए जाते हैं यहां वहां। यही मूल अंतर है मानव और पशु में कि पशु विरोध नहीं करते, ना कह पाते हैं अपने मन की बात। पर मानव सोच सकता है, विरोध कर सकता है, चुनने की आजादी है उसे। पर मानव हो जाता है पशु जब वह विरोध नहीं करता और चुन लेता है हर किसी को बिना जांचे परखे एक लंबे अरसे के लिए। फिर कोसता रहता है अपने नए चुनाव को जब आशाओं के विपरीत आने लगते हैं रुझान और करता रहता है परिवर्तन का इंतज़ार। बस यही एक मूल अंतर है या बराबरी भी कहें कि एक मौके पर मानव भी हो जाता है हाट बाजार के पशु; जो विरोध नहीं करते।।। © नगेंद्र ©Nagendra Chaturvedi

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