White फिर भूलने को तुझे एक जुगत बैठाई थी
चंद मोहरों की हसीना घर ले आयी थी
बैठी थी रौशनी में दस्तरस मुझे होने को
और मैंने चुपके से रौशनी बुझाई थी
कोई बादाकश ना कह पुकार दे मुझको
मैंने इसलिए उसको चादर ओढ़ाई थी
बन्द शीशे के पीछे से वो देखती थी मुझको
बुज़दिल है क्या तू वो ज़ोर से चिल्लाई थी
प्यार से बहुत उसे गोद मे रखा मैंने
खुलते साथ ही वो गोशे को महकाई थी
यूँ के कुछ सोचा फिर बन्द कर दिया मैंने
वही काफी है जो तूने आँखों से पिलाई थी
©गौरव आनन्द श्रीवास्तव
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