उलझ कर तेरी आंखों में यूं आबाद हो जाऊं, की जैसे
लखनऊ की मैं अमीनाबाद हो जाऊं.
और कब तक यमुना कि तरह अकेले निहारूं मैं ताज महल को , कोई गंगा मिले तो मैं इलाहाबाद हो जाऊं.
अब ग़ज़लें कहने लगी हूं तुम जरा सा मुस्कुरा तो दो,
यहीं तो चहाते थे तुम कि मैं बर्बाद हो जाऊं।
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