ग़ज़ल
यही बात मुझको सताती रही
मैं क्यों वक्त तुझ पर गवाती रही
हैं झूठे सभी तू भी सच्चा नहीं
मैं फिर भी तुझे सर चढ़ाती नहीं
तेरे साथ जितना भी हिस्सा रहा
वो किस्सा सभी को सुनाती रही
तू आंखों में दिखने लगा था मेरे
मैं पलके झुका कर छुपाती रही
तू जाने लगा था जो मुंह मोड़कर
बिखर के भी तुझको मनाती रही
जुबां ने तो ऐसा कहा ही नहीं
मैं आंखों से तुझको बुलाती रही
-पाखी चकोर ♥️
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