चप्पल-जूते मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उस उबलती ह

"चप्पल-जूते मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उस उबलती हुई गरम चाय जैसी है, हाथों से अपने जिसे मैं उन च्यासों को देता है,, पड़ने की उम्र में, उन झूठे काच के प्यालो से पैसे कमाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन कीचड और मिट्टी में सने जूतो जैसी है, हाथों से जिन्हे में बूट पॉलिश से चमकाता हूँ, खेलने की उम्र में, मेँ लोगो के जूते घिस घिस के, दो पेहेर की रोटी लाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन धूल लगी तमाम गाड़ियों जैसी, हाथों से जिने मैं हर मौसम में धोता हूँ, शरारतें करने की उम्र में, मैं लोगों की गाड़ियाँ चमकाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन फटे पुराने कपडोँ जैसी है, जिन्हे पहन के ट्रैफिक सिग्नल पर भाग भाग कर, पसीना बहाकर मालिक का सामान बेचता हूँ, कभी मालिक का तो कभी समाज का तिरस्कार सेहता हूँ मेरी तकदीर कुछ ऐसी ही है, ख्वाहिशें मेरी भी आप जैसी ही हैं, अपना लिया मैंने इस तकदीर को खुदा का तोहफा समझ के, फिर भी करता हूँ उम्मीदें आज भी इस ज़िन्दगी से, गरीब हूँ, पर पसीना बहाता हूँ, मैं भी एक बच्चा हूँ, इस देश का भविष्य हूँ, पर अफ़सोस ! मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है ! ©Pratishtha Saxena"

 चप्पल-जूते 

मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, 
उस उबलती हुई गरम चाय जैसी है, 
हाथों से अपने जिसे मैं उन च्यासों को देता है,, 
पड़ने की उम्र में, उन झूठे काच के प्यालो से पैसे कमाता हूँ, 
मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, 
उन कीचड और मिट्टी में सने जूतो जैसी है, 
हाथों से जिन्हे में बूट पॉलिश से चमकाता हूँ, 
खेलने की उम्र में, मेँ लोगो के जूते घिस घिस के, 
दो पेहेर की रोटी लाता हूँ, 
मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, 
उन धूल लगी तमाम गाड़ियों जैसी, 
हाथों से जिने मैं हर मौसम में धोता हूँ, 
शरारतें करने की उम्र में, मैं लोगों की गाड़ियाँ चमकाता हूँ, 
मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, 
उन फटे पुराने कपडोँ जैसी है, 
जिन्हे पहन के ट्रैफिक सिग्नल पर भाग भाग कर, 
पसीना बहाकर मालिक का सामान बेचता हूँ, 
कभी मालिक का तो कभी समाज का तिरस्कार सेहता हूँ 
मेरी तकदीर कुछ ऐसी ही है, 
ख्वाहिशें मेरी भी आप जैसी ही हैं, 
अपना लिया मैंने इस तकदीर को 
खुदा का तोहफा समझ के, 
फिर भी करता हूँ उम्मीदें आज भी 
इस ज़िन्दगी से, 
गरीब हूँ, पर पसीना बहाता हूँ, 
मैं भी एक बच्चा हूँ, 
इस देश का भविष्य हूँ, 
पर अफ़सोस !
मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है !

©Pratishtha Saxena

चप्पल-जूते मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उस उबलती हुई गरम चाय जैसी है, हाथों से अपने जिसे मैं उन च्यासों को देता है,, पड़ने की उम्र में, उन झूठे काच के प्यालो से पैसे कमाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन कीचड और मिट्टी में सने जूतो जैसी है, हाथों से जिन्हे में बूट पॉलिश से चमकाता हूँ, खेलने की उम्र में, मेँ लोगो के जूते घिस घिस के, दो पेहेर की रोटी लाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन धूल लगी तमाम गाड़ियों जैसी, हाथों से जिने मैं हर मौसम में धोता हूँ, शरारतें करने की उम्र में, मैं लोगों की गाड़ियाँ चमकाता हूँ, मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है, उन फटे पुराने कपडोँ जैसी है, जिन्हे पहन के ट्रैफिक सिग्नल पर भाग भाग कर, पसीना बहाकर मालिक का सामान बेचता हूँ, कभी मालिक का तो कभी समाज का तिरस्कार सेहता हूँ मेरी तकदीर कुछ ऐसी ही है, ख्वाहिशें मेरी भी आप जैसी ही हैं, अपना लिया मैंने इस तकदीर को खुदा का तोहफा समझ के, फिर भी करता हूँ उम्मीदें आज भी इस ज़िन्दगी से, गरीब हूँ, पर पसीना बहाता हूँ, मैं भी एक बच्चा हूँ, इस देश का भविष्य हूँ, पर अफ़सोस ! मेरी तकदीर ही कुछ ऐसी है ! ©Pratishtha Saxena

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