" ख्याब से जगने लगी हूं। "
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खाव से अब जरा जगने लगी हूं,
जिंदगी को बेहतर समझने लगी हूं।।
उड़ती थी शायद कभी ऊंची हवाओं में,
जमी पर अब पैदल चलने लगी हूं।।
लफ्जों की मुझको जरूरत नही,
चहरों को जबसे मैं पढ़ने लगी हूं।।
थक जाती हूं अक्सर अब शोर से,
खामोशियों से बातें करने लगी हूं।।
दुनिया की बदलती तस्वीर देख कर,
शायद मैं भी कुछ कुछ बदलने लगी हूं।।
परवाह नही कोई साथ आए मेरे,
मैं अकेली ही आगे बड़ने लगी हूं।।
©Anshi Singh.
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