छुपा के रखा करो अपने इश्क का दीया आशिकों!,
महबूब पर हुस्न की ये फिजाएं बस अभी-अभी है,,
बाहर चल रही है हवा दौलतमंद रकीबो की,
ये आंधियां ना तुम्हारी सगी है ना मेरी सगी है,,
दौलत खींचती है बेवफाओ को अपनी तरफ,
फिर क्या फ़र्क के तेरे वाली भगी है के मेरी भगी है,,
ज़ख्म भी नासूर होते है इनके नोचने के,
फिर क्या फर्क के खरोंच तुम्हे लगी है के मुझे लगी है,,
हसे बसे घरौंदे उजाड़ दिए मतलबी चिंगारियो ने,
क्या फर्क के आग तेरे घर लगी है या मेरे घर लगी है,,
रकीब को सलाह है के बाजार से उसे
नक़ाबपोषी में गुजारा करे,
खामखा लोग बात बनाएंगे के
कल उसके गले पड़ी थी आज इसके सर पड़ी है।।
©Dev choudhary
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