भौतिकता की दोड़ में जीवन यूँ ही खोते गये |
हम स्वयं ही स्वयं से दूर होते गये
अमूल्य जीवन के मूल्य यूँ ही लगाते गये
मानों कांचों को बटोरा और मणियां खोते गये ||
क्या थी मंजिल और कहाँ चल पड़े हैं
पता स्वयं को नहीं पतन मुहाने में खड़े हैं
जीवन की यूँ अविरल धारा सतत बहते जा रही है |
फिर भी क्यूं प्यासा कंठ जलते जा रही है? ||
प्रलय और निर्माण तुम्ही हो |
निराकर साकार तुम्ही हो
चिन्मय सत्य आनंद अंश हो
श्री राम प्रभु के अंश वंश हो ||
कवि सौरभ धर
©shiv putra
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