चेहरों के बाजार में
आईना भी बेचा गया
नजर में आने वालों को
नज़रिया भी दिया गया
कहानियाँ ईमान की फैली ही नहीं शहर में "अंक"
बेईमानियों के प्रसंग से अखबार सजाया गया
आसमां बनते-बनते
जमीन को कुचला गया
चांद -सा रौशन इलाका
अंधेरों का होता गया
निभाने वाले ईमान पर दाग भी लगाए गए
जश्न के माहौल में देश ही बदल गया
एक अकेला क्रांति के फिर भी लगाए नारे यहां
आँधियों के वार से पेड़ भी लड़ता गया
खूब चलते है चाकू कितनों के सीने तलें
अखबार के पृष्ठों में देश कहानियाँ पढ़ता गया
जनतंत्र करता है शोर रसातल के मेहमान का
मोल -तोल करते नहीं है चुनावी-प्रचार का
अखबार ही क्या जवाबदेह है? लोकतंत्र के इस विकार का
दफ़्तरों में मौन-मुखौटो से दीनों की बात हुई है
दीमकों को कागज़ो -सी खुराकी मिल गई है
मानवों में दानवों -सा रक्त बह गया है मानो
कलमों को कलम ही रहने दो
मत प्रलोभन के स्वर को मानो
प्रतिवर्ष तन मन की निर्मलता से
विवेक,त्याग और कौशलता से फूलों-सा ईमान आता है देश
जानूस-सामना के परिवेश में
दीमकों का बनता है भेंट
©Ankit Upadhyay....
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