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©Gyanendra Mani Tripathi

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जलती लपटों में ख़ुद को कहीं खोज रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।
शोषितों और पीड़ितों के दर्द को झेल रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।।
हार के बाद भीड़ का गुस्सा देख रहा हूँ,जीत के बाद भी आक्रोश को सह रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।
मेरी पहचान धूमिल सी होती मालूम होती है मुझको,मैं उसको समेट रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।।
मेरे लोगों का कत्ल हो रहा है,मेरे लोगों का घर मेरे सामने जल रहा है,मैं सब देख रहा हूँ,मैं शहर बोल रहा हूँ।
मेरी ही नही मेरी बेटियों की भी इज्ज़त का सौदा हो रहा है,मैं बाज़ार में बिक रहा हूँ,मैं शहर बोल रहा हूँ।।
क्या गलती है मेरी,कोई अपराध तो बता दो,जिसकी सजा मैं भोग रहा हूँ, मैं एक शहर बोल रहा हूँ।
मेरे बच्चों से भी प्यारे मेरे कस्बों में मातम छाया हुआ है,मैं उसको भी देख रहा हूँ,मैं एक शहर बोल रहा हूँ।।

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