एक खिड़की से मैं
देखना चाहती थी उसकी दुनिया को
जो छुपा रखी है उसने सारी दुनिया से
जिसे जीता है वो हर रोज़
तुमसे लड़कर अपनी सुनकर
पानी में बहकर तो कभी पर्वत भी चढ़कर
जीते हुए जिसे, उसने साहिल है देखा
समुंदर के सीने से रोज़ बातिल को फेंका
गिर जाए गर तो उठना सिखाया
चलते हुए जिसने रुकना सिखाया
क्या सबसे कहकर सबको मनाकर
रख पाएगा उसको अपना बनाकर
या खिड़कियों में ताले लगाकर
छिप जाएगा खुद भी उसको भुलाकर।।
Arshemah Siddiq Adab
©Arshemah '
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