है मनुज ये जीवन कैसा, कुछ समझ नहीं आता है
अपने अंतर की पीड़ाओं में दबा चला जाता है
खेल खेलता कितना पर भीतर बिखलाता है
हृदय सहित यू क्रीड़ा ऐसे सहज नहीं होता है
कर्म - अकर्म में वो उलझा सुलझ नहीं पाता है
धर्म क्या अधर्म क्या, कभी भीतर अकुलाता है
हृदय के वो दावानल को बुझा नहीं पाता है
मुखमंडल पर कुसुम लिए भीतर कुंठित पाता है
जीवन रस में हुए विलीन, पर एक हला पीता है
बाहर दिखता अंगराज, भीतर कर्ण छला जाता है
जीवन की ये मादकता, संकुचित किए जाता है
थक जाता मनुस्मृतियो से निकल नहीं पाता है
तब लगता है क्यों मनुज ये हृदय लिए आता है
हृदय रहित जो ये होता, क्यों फिर दुख ये पाता
पर मनुज फिर कैसे होता हृदय विहीन जो आता
उपहास नहीं ये मानव पीड़ा, उपहार बन कर है अाई
विश्व गवाह है इतिहास बनी वो जो पीड़ा हंस सह पाई
हे मनुज! तू सुधा है जो हृदय मंथन से अाई
पाकर तू अमर हो जाए, जो मोल समझ में आई
ले तू पीड़ा जीवन समर का, बना रहे अभिलाषी
चलता रह तू कर्म पटल पर, बनकर एक वनवासी।
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