कुण्डलिया :-
नम आँखों से बेटियाँ , करती बस ये चाह ।
मातु-पिता की अब यहाँ , कौन करे परवाह ।।
कौन करे परवाह , हमारी डोली उठते ।
ले जाती मैं साथ , साथ जो मेरे चलते ।।
अब क्या मेरे हाथ , मुझे ले जाते हमदम ।
देख पिता को आज , हुई मेरी आँखें नम ।।
देने को तैयार हूँ , सभी *परीक्षा* आज ।
जैसे चाहो साँवरे , रोकों मेरे काज ।।
रोको मेरे काज , शरण तेरी मैं पकडूँ ।
यही हृदय की चाह , प्रीति में तेरी अकडूँ ।।
आओगे तुम पास , भेद फिर मेरे लेने ।
रहूँ सदा तैयार , परीक्षा जो हैं देने ।।
उतनी तुमने साँस दी , इतनी है अब शेष ।
और नहीं कुछ आस है , फिर क्यों भदलूँ भेष ।।
फिर क्यों बदलू भेष , *परीक्षा* देने आया ।
बनकर बैठा शिष्य , हृदय क्यों है घबराया ।।
पाया हूँ जो ज्ञान , कहूँ कम कैसे इतनी ।
कपट न पाया सीख , रही बस देखो उतनी ।।
०१/०३/२०२४ - महेन्द्र सिंह प्रखर
©MAHENDRA SINGH PRAKHAR
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