उदभव से अवसान जहाँ
संग आदि अंत की बातें हो
संत समागम हो दिन में
श्मशान की जगती रातें हो
कलुषित मन भी गंग बने
जहाँ देव भी आते जाते हो
उस नगरी को जाना चाहूँ
शायद खो कर खुद को पाऊँ।
मृत्यु भी उत्सव लगता हो,
चिताओ से घाट सजे जहाँ
महादेव से अभिवादन हो,
डम डम की नाद बजे जहाँ
श्मशान घाट की होली हो
गुलाल भस्म की लगे जहाँ
उस नगरी को जाना चाहूँ
शायद खो कर खुद को पाऊँ।
पाषाण बदल कर हृदय बने
कटुहृदय में मृदु धार बहे
मन की कालिख धुल जाये
न अंतस् में कोई उदगार रहे
भस्म हो मन की पीर जहाँ
विचारों में न कोई हुँकार रहे
उस नगरी को जाना चाहूँ
शायद खो कर खुद को पाऊँ।
©SHASHIKANT
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