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गर्मी  :- कुण्डलिया  नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज । पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।। निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने । इस युग का सब आज , इसे दानव ही जाने ।। फिर भी अर्पण पुष्प , करें सबं उनकी फोटो । जिनके घर में ढेर , लगे है देखो नोटों ।। गर्मी दिन-दिन बढ़ रही , रहे सभी अब झेल । जीव-जन्तु बेहाल , प्रकृति रही है खेल ।। प्रकृति रही है खेल  , सभी से अब के बी सी । कूलर पंखा फेल , लगाओ घर-घर ऐ सी ।। कितने दिन हो पार , नही बातों में नर्मी । किया दुष्ट व्यवहार , बढ़ेगी निशिदिन गर्मी ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  गर्मी  :- कुण्डलिया 
नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज ।
पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।।
निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने ।
इस युग का सब आज , इसे दानव ही जाने ।।
फिर भी अर्पण पुष्प , करें सबं उनकी फोटो ।
जिनके घर में ढेर , लगे है देखो नोटों ।।

गर्मी दिन-दिन बढ़ रही , रहे सभी अब झेल ।
जीव-जन्तु बेहाल , प्रकृति रही है खेल ।।
प्रकृति रही है खेल  , सभी से अब के बी सी ।
कूलर पंखा फेल , लगाओ घर-घर ऐ सी ।।
कितने दिन हो पार , नही बातों में नर्मी ।
किया दुष्ट व्यवहार , बढ़ेगी निशिदिन गर्मी ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गर्मी  :- कुण्डलिया  नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज । पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।। निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने । इस

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गर्मी  :- कुण्डलिया  नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज । पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।। निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने । इस युग का सब आज , इसे दानव ही जाने ।। फिर भी अर्पण पुष्प , करें सबं उनकी फोटो । जिनके घर में ढेर , लगे है देखो नोटों ।। गर्मी दिन-दिन बढ़ रही , रहे सभी अब झेल । जीव-जन्तु बेहाल , प्रकृति रही है खेल ।। प्रकृति रही है खेल  , सभी से अब के बी सी । कूलर पंखा फेल , लगाओ घर-घर ऐ सी ।। कितने दिन हो पार , नही बातों में नर्मी । किया दुष्ट व्यवहार , बढ़ेगी निशिदिन गर्मी ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

#कविता  गर्मी  :- कुण्डलिया 
नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज ।
पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।।
निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने ।
इस युग का सब आज , इसे दानव ही जाने ।।
फिर भी अर्पण पुष्प , करें सबं उनकी फोटो ।
जिनके घर में ढेर , लगे है देखो नोटों ।।

गर्मी दिन-दिन बढ़ रही , रहे सभी अब झेल ।
जीव-जन्तु बेहाल , प्रकृति रही है खेल ।।
प्रकृति रही है खेल  , सभी से अब के बी सी ।
कूलर पंखा फेल , लगाओ घर-घर ऐ सी ।।
कितने दिन हो पार , नही बातों में नर्मी ।
किया दुष्ट व्यवहार , बढ़ेगी निशिदिन गर्मी ।।

महेन्द्र सिंह प्रखर

©MAHENDRA SINGH PRAKHAR

गर्मी  :- कुण्डलिया  नोटो की गर्मी दिखी , इंसानों में आज । पतन हो गया प्रेम का , निष्ठुर हुआ समाज ।। निष्ठुर हुआ समाज , नही मानव पहचाने । इस

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