*विचारणीय*
नदी से पानी नहीं, रेत चाहिए.
पहाड़ से ओषधि नहीं, पत्थर चाहिए.
वृक्ष से छाया नहीं, लकड़ी चाहिए.
खेत से अन्न नहीं, नक़द फ़सल चाहिए.
रेत से पक्की सड़क, मकान बनाकर, नक्काशीदार दरवाजे सजाकर,
अब भटक रहे हैं।
उलीच ली रेत, खोद लिए पत्थर,
काट दिए वृक्ष, तहस-नहस कर दी मेड़ें;
अब भटक रही सभ्यता !!!
सूखे कुओं में झाँकते,
खाली नदियाँ ताकते,
झाड़ियां खोजते लू के थपेड़ों में,
बिना छाया ही हो जाती सुबह से शामें....!!!
बूँद-बूँद बिक रही जल की।
साँस लेने हवा भी बिकेगी,
कल्पना करें उस कल की!
©शैलेन्द्र यादव
#जल#पानी#पेड़#प्रकृति