नदी जैसी मैं...
नदी के जैसे बहेती हूं मैं,
सदैव अपनी मस्ती में रहती हूं मैं,
दूसरों की सौच की परवाह न करती हूं मैं,
कभी शांत कभी विकराल हूं मैं,
कभी खुशी से झूम उठती हूं मैं,
कभी कठिनाई से घैरी जाती हूं मैं,
फिर भी कभी हार न मानकर टट के सामना करती हूं मैं,
बस नदी के जैसे बहेती हूं मैं,
बुराई ओ को पीछे छोड़कर ही आगे बढ़ जाती हूं मैं,
मुझमें जो अच्छाई है वह सब मैं बटोरती फिरती हूं मैं,
दूसरो की अच्छाई का स्वीकार कर आगे बढ़ती हूं मैं,
बुरी चीजों को किनारे पे छोड़कर ही आगे बढ़ती हूं मैं,
जानती हूं में की मैं समुद्र जितनी बड़ी भी नहीं हूं,
फिर भी मेरी अच्छाई की वजह से अगर शेर को भी मेरी अच्छाई का उपयोग करना हो तो शिर झुकाकर करना पड़ता हैं।
---$#UB@NG!(Shubhangi)
©$#UB#@NG!
#river