तुम क्या हो मेरी, यह मुझे इल्म नहीं, कुछ तो हो जरू

"तुम क्या हो मेरी, यह मुझे इल्म नहीं, कुछ तो हो जरूरी, अब बस यही समझ मुझे आता है। वीराने के उस अकेले खड़े पेड़ की तरह, हर दफा भीड़ में भी साफ नजर आती हो तुम मुझे, गर्मी की दोपहर में उस एक बादल की तरह, सुकून दे जाती हो तुम मुझे। बचपन में लगी उस पहली चोट की तरह, जेहन में हर दम बसी रहती हो तुम, घर पर बोले उस पहले झूट पर लगी पीटाई की तरह , याद मुझे रहती हो तुम, Part 2 Anshul"

 तुम क्या हो मेरी, यह मुझे इल्म नहीं, कुछ तो हो जरूरी, अब बस यही समझ मुझे आता है। वीराने के उस अकेले खड़े पेड़ की तरह,
हर दफा भीड़ में भी साफ नजर आती हो तुम मुझे, गर्मी की दोपहर में उस एक  बादल की तरह,
सुकून दे जाती हो तुम मुझे। बचपन में लगी उस पहली चोट की तरह,
जेहन में हर दम बसी रहती हो तुम,
घर पर बोले उस पहले झूट पर लगी पीटाई की तरह ,
याद मुझे रहती हो तुम,

Part 2
Anshul

तुम क्या हो मेरी, यह मुझे इल्म नहीं, कुछ तो हो जरूरी, अब बस यही समझ मुझे आता है। वीराने के उस अकेले खड़े पेड़ की तरह, हर दफा भीड़ में भी साफ नजर आती हो तुम मुझे, गर्मी की दोपहर में उस एक बादल की तरह, सुकून दे जाती हो तुम मुझे। बचपन में लगी उस पहली चोट की तरह, जेहन में हर दम बसी रहती हो तुम, घर पर बोले उस पहले झूट पर लगी पीटाई की तरह , याद मुझे रहती हो तुम, Part 2 Anshul

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