जुही के फूल
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मेरे और तुम्हारे बीच ख़ामोशी की एक दीवार थी जिसपर हम अक्सर ख्यालों की कोई तस्वीर टांग दिया करते थे। मुझे कभी ये दीवार बोझिल नहीं लगी। ये दीवार हमारे दरमियाँ की खूबसूरत चुप्पियों की ईंट से बनी थी। मैं शायद ही कभी दीवार के उस पार झाँक कर तुम्हें देखने की कोशिश करती हूँ। पता नहीं क्यूँ लेकिन मुझे चुपचाप दीवार की ओट से लगकर बैठना और तुम्हारी ख़ामोशी सुनना पसंद है। मैं महसूस करती हूँ तुम्हारी हाथ की छुअन को जब उस पर तुम मेरा नाम लेकर कोई ईंट छूते हो।
प्रेम कितना आसान है ना तुम्हारे साथ! मैं स्वतंत्र होती हूँ, साँसे ले सकती हूँ, कोई बोझ नहीं है दिल पर। प्रेम अगर खूबसूरत है तो तुम और मैं इस खूबसूरती की चरम सीमा पर है। दो ख़ामोश लोग आत्मिक नग्नता को निहारते हैं और चूमते हैं। आँखों से फूटने वाले शब्दों की लिपि पूरे बदन पर उभर आती है।
ऐसे ही कितने शब्द उभरते हैं तुम्हारे देह पर जब तुम मुझे देखते हो और जब मैं तुम्हें महसूस करती हूँ। तुम ये सोच रहे हो कि तुम्हें देख कर मैं शब्दहीन क्यूँ हो जाती हूँ.... जब तुम्हें देखती हूँ तो फिर मैं अपना सुध खो देती हूँ। मैं बस उन शब्दों को अपने होंठों से चूम लेना चाहती हूँ।
जब तुम्हें आँखें बंद करके महसूस करती हूँ तो लगता है कि जूही के फूल झड़ने लगे हो मेरी गर्दन से जिसके मादक गंध को तुम ख़ुद में क़ैद कर लेना चाहते हो। तुम्हारे स्पर्श की तीव्रता क्यूँ मुझे इतनी मोहित करती है ये सवाल पूछूँगी तुमसे किसी रात जब हम दोनों एक ही सफेद चादर में लिपटे अपना-अपना चाँद निहार रहे होंगे। कितनी सुगंधित है ना तुम्हारी उपस्थिति मेरे हृदय और देह में!