वो जानती थी... अक्टूबर उदासियों और बेचैनियों का महीना है। कैसे गर्मी हाथों से फिसल रहीं और सामने बर्फीली ठंड खड़ी है। हाँ, ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरे गर्म हथेलियों से अपनी हथेलियों को धीरे-धीरे खींच रहे हो और मैं ख़ामोशी से तुम्हारी हर उँगलियों को फिसलते देख रहीं हूँ ख़ुद से अलग होते हुए। कितनी बेचैन है ये अक्टूबर... चाहती है कि आवाज लगाकर कर रोक ले साल को बीत जाने से लेकिन ऐसा हो पाया है क्या ? क्या कोई आवाज देने से रुक जाता है? कोई जाए ही क्यूँ जब रोकने पर रुक जाए। जाना तो हमेशा से तय होता है ना। रोकने मे असमर्थ होने की उदासी जीवनभर रहती है। जैसे कोई पारिजात रात के पहले पहर में खिली और तीसरे पहर खुद टूट कर गिर जाती है। टूटने से ठीक पहले का भय तोड़े जाने का होता है, शायद इसलिए खुद टूट जाना बेहतर लगता है।
कभी हम कहानी का कोई एक हिस्सा नहीं बल्कि पूरी कहानी होते है जो वक्त बीतने के साथ महसूस करते है कि ये कहानी हमारी थी ही नहीं। हम बस पाठक थे जिसे मुख्य पात्र होने का भ्रम हो चला था।
चाहे हथेलियों में यादों की कितनी ही गर्मी क्यूँ ना हो नवंबर बीतते सर्द हो ही जाते है और दिसम्बर बीमार कर ही देती है।
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