हुई समंदर उसकी आँखें, मैं साहिल ढूँढता हूँ, अश्क क

"हुई समंदर उसकी आँखें, मैं साहिल ढूँढता हूँ, अश्क के प्रतिबिंब में झाँक, कातिल ढूँढता हूँ। अल्फ़ाज़ यूँ अटक गये हैं, सूखे अधरों पर उसके, किसने चुराई लाली होठों की, संगदिल ढूँढता हूँ। उलझी हैं जुल्फें, और बिखरे हैं उसके जज़्बात, क्यों आसान नहीं सुलझाना, मुश्किल ढूँढता हूँ। नाज़ुक बदन पर , नाखून के निशां दागे दर्दनाक, लूटकर आबरू कौन भागा, वो बुज़दिल ढूँढता हूँ। ए 'ग़ज़ल' क्यों मौन है, सन्नाटे को चीर के चीख, छलनी किया जिसने ये दिल , वो बेदिल ढूँढता हूँ। श्वेता अग्रवाल 'ग़ज़ल'"

 हुई समंदर उसकी आँखें, मैं साहिल ढूँढता हूँ,
अश्क के प्रतिबिंब में झाँक, कातिल ढूँढता हूँ।

अल्फ़ाज़ यूँ अटक गये हैं, सूखे अधरों पर उसके,
किसने चुराई लाली होठों की, संगदिल ढूँढता हूँ।

उलझी हैं जुल्फें, और बिखरे हैं उसके जज़्बात,
क्यों आसान नहीं सुलझाना, मुश्किल ढूँढता हूँ।

नाज़ुक बदन पर , नाखून के निशां दागे दर्दनाक,
लूटकर आबरू कौन भागा, वो बुज़दिल ढूँढता हूँ।

ए 'ग़ज़ल' क्यों मौन है, सन्नाटे को चीर के चीख,
छलनी किया जिसने ये दिल , वो बेदिल ढूँढता हूँ।

श्वेता अग्रवाल 'ग़ज़ल'

हुई समंदर उसकी आँखें, मैं साहिल ढूँढता हूँ, अश्क के प्रतिबिंब में झाँक, कातिल ढूँढता हूँ। अल्फ़ाज़ यूँ अटक गये हैं, सूखे अधरों पर उसके, किसने चुराई लाली होठों की, संगदिल ढूँढता हूँ। उलझी हैं जुल्फें, और बिखरे हैं उसके जज़्बात, क्यों आसान नहीं सुलझाना, मुश्किल ढूँढता हूँ। नाज़ुक बदन पर , नाखून के निशां दागे दर्दनाक, लूटकर आबरू कौन भागा, वो बुज़दिल ढूँढता हूँ। ए 'ग़ज़ल' क्यों मौन है, सन्नाटे को चीर के चीख, छलनी किया जिसने ये दिल , वो बेदिल ढूँढता हूँ। श्वेता अग्रवाल 'ग़ज़ल'

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